Indian News : पाँच साल सत्ता से बेदखल रहने के बाद, इस बार भी अखिलेश यादव यूपी की मुख्यमंत्री की कुर्सी से दूर ही रह गए.
चुनाव नतीजों के बाद अखिलेश यादव ने पहली प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने ट्वीट किया, ”यूपी की जनता को हमारी सीटें ढाई गुनी और मत प्रतिशत डेढ़ गुना बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद! हमने दिखा दिया है कि भाजपा की सीटों को घटाया जा सकता है. भाजपा का ये घटाव निरंतर जारी रहेगा. आधे से ज़्यादा भ्रम और छलावा दूर हो गया है बाकी कुछ दिनों में हो जाएगा. जनहित का संघर्ष जीतेगा!”
हालांकि बीजेपी की जीत का अंतर ज़रूर कम हुआ है और समाजवादी पार्टी का ‘स्कोर कार्ड’ 2017 के मुक़ाबले बेहतर हुआ है.
इस बार के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने दांव तो कई खेले, कुछ चालें भी अच्छी चलीं लेकिन नतीजे अपने पक्ष में नहीं ला पाए.
करहल की अपनी विधानसभा सीट वो बचा पाने में सफल रहे, जहाँ इस चुनाव में पहली बार मुलायम सिंह यादव उनके लिए प्रचार करते नज़र आए.
लेकिन बाक़ी सीटों पर अपनी पार्टी के लिए वो अकेले ‘स्टार’ भी थे और ‘प्रचारक’ भी.
पूरे प्रदेश में उन्होंने तक़रीबन 130 चुनावी रैलियों को संबोधित किया. फिर भी उनकी साइकिल पिछड़ गई.
क्या अखिलेश, मोदी-योगी की बड़ी टीम की वजह से पिछड़ गए या रणनीति बनाने में चूक हुई?
बीजेपी और समाजवादी पार्टी में गैप
इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “2017 में अख़िलेश के पास 50 से कम सीटें थी और 20 फ़ीसदी वोट शेयर. इस लिहाज से देखें तो सपा का प्रदर्शन बहुत बुरा नहीं है. उनकी सीटों की संख्या बढ़ी है और वोट शेयर में भी इज़ाफ़ा हुआ है.
लेकिन बीजेपी के साथ उनका गैप इतना बड़ा था कि उसे भरना मुश्किल था. 2017 में बीजेपी के पास 300 से ज़्यादा सीटें थीं.
नीरजा आगे कहती हैं, “इस चुनाव में जनता के अंदर बीजेपी के ख़िलाफ़ असंतोष था ग़ुस्सा नहीं. बीजेपी ने ग़ुस्से को कम करने के लिए अपनी पूरी मशीनरी लगा दी. नमक, तेल, पैसा, वैक्सीन, गैस सब कुछ दे कर इस ग़ुस्से को कम करने में बीजेपी सफ़ल रही. लेकिन अखिलेश इस ‘ग़ुस्से’ को और भड़काने और अपने हक़ में करने में असफल रहे.
इतना ही नहीं, अखिलेश यादव ने महिलाओं को एक वोट बैंक की तरह सोच कर कोई एजेंडा नहीं बनाया. लाभार्थी स्कीम की वजह से बीजेपी महिलाओं का एक बड़ा वोट बैंक तैयार करने में कामयाब रही थी. उनके पास इसका कोई तोड़ नहीं था.”
ग़ैर-यादव ओबीसी वोट पाने की कोशिश
हालांकि अखिलेश ने भले ही बीजेपी की रणनीति की काट ना खोजी हो, लेकिन वो अपनी अलग रणनीति बनाते हुए साफ़ दिखे.
जब एक-एक कर ग़ैर-यादव ओबीसी नेता बीजेपी का साथ छोड़ रहे थे उस वक़्त अखिलेश यादव ने उनके लिए दरवाज़े खोले. माना जा रहा था कि ये अखिलेश का मास्टर स्ट्रोक है.
लेकिन अपने बाग़ी नेताओं के सामने बीजेपी ने जैसे उम्मीदवार उतारे सबने बहुत अच्छी लड़ाई लड़ी.
नीरजा कहती हैं, “ग़ैर यादव ओबीसी नेताओं को अपने साथ जोड़ने की रणनीति ग़लत नहीं थी. लेकिन वो पूरी तरह इसमें सफल नहीं हो पाए. शायद पाला बदलने वाले नेता अपनी जाति के लोगों को भरोसा नहीं दिला पाए, जिस वजह से वोट शिफ़्ट नहीं हुआ.”
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार निस्तुला हेब्बार का आकलन थोड़ा अलग है.
वो कहती है, “जाति के आधार पर बनी पार्टियों के साथ गठबंधन का फ़ायदा तो होता है, लेकिन एक-दो नेता को अपने साथ मिलाने से पूरे समाज का वोट मिलता हो, ऐसा नहीं है. ओपी राजभर की पार्टी से गठबंधन का तो समाजवादी पार्टी को फ़ायदा हो सकता है, लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य के आने से मौर्य समाज का पूरा वोट उन्हें मिल जाएगा, शायद ये अखिलेश की भूल थी. इस लिहाज से बीजेपी का गणित ठीक रहा.”
हालांकि वो ये मानती है कि सीटों के हिसाब से इस ट्रेंड को समझने की ज़रूरत होगी कि जिन छोटे दलों के साथ अखिलेश ने गठबंधन किया उनका कितना वोट किस पार्टी को ट्रांसफ़र हुआ.
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बीजेपी के विकल्प के तौर पर ख़ुद को पेश नहीं कर पाए अखिलेश
अखिलेश के हार की एक बड़ी वजह निस्तुला ये मानती हैं कि वो ख़ुद को बीजेपी के विकल्प के तौर पर पेश नहीं कर पाए.
वरिष्ठ पत्रकार निस्तुला हेब्बार कहती हैं, “कोरोना महामारी, सदी की सबसे बड़ी महामारी थी. अगर उस वक़्त राज्य और केंद्र सरकार ग़ायब थी तो विपक्ष के तौर पर अखिलेश भी ज़मीन पर नज़र नहीं आए. यूपी जैसा बड़ा राज्य जो ग़रीब भी है और पिछड़ा भी है वहाँ कोरोना महामारी की दूसरी लहर में क़हर सबसे ज़्यादा बरपा था. बीजेपी के ख़िलाफ़ लोगों में ग़ुस्सा था. अखिलेश उस ग़ुस्से को कैश नहीं कर पाए. उस वक़्त लोगों के बीच वो भी नदारद थे.
अगर उस वक़्त लोगों के बीच वो होते, उनके आंसू पोंछते तो लोगों के अंदर एक विश्वास जगता कि सत्ताधारी बीजेपी की जगह उनके पास समाजवादी पार्टी एक विकल्प है.
बीजेपी ने फ़्री राशन से बचाव किया और लोगों का वो खोया भरोसा दोबारा जीता. लेकिन अखिलेश ऐसा नहीं कर पाए. चुनावी मैदान में बहुत देर से कूदे.
पॉज़िटिव एजेंडे की कमी
यहाँ एक बात और ग़ौर करने वाली है. बीजेपी की जगह वो सत्ता में आने के लिए वोट तो माँगते रहे, लेकिन उनके घोषणा पत्र में ऐसा कुछ ख़ास नहीं था जो लोगों को अपनी तरफ़ आकर्षित कर पाता.
निस्तुला कहती हैं अखिलेश के पास इस चुनाव में पॉज़िटिव एजेंडा नहीं दिखा.
“22 में 22 संकल्प पत्र” के नाम से समाजवादी पार्टी ने अपना घोषणा पत्र जारी किया जिसमें किसानों के लिए सभी फ़सलों के लिए एमएसपी, गन्ना किसानों को 15 दिन में भुगतान, 2025 तक सभी किसानों को क़र्ज़ से मुक्ति जैसे वादे थे. सपा का यह भी वादा था कि वो सभी बीपीएल परिवारों को प्रति वर्ष दो एलपीजी सिलेंडर मुफ़्त देगी. साथ ही दोपहिया वाहन मालिकों को प्रति माह एक लीटर मुफ़्त पेट्रोल, ऑटो चालकों को हर महीने तीन लीटर पेट्रोल या छह किलो सीएनजी मुफ़्त देने का वादा भी सपा कर रही थी.
रोज़गार के नज़रिये से वचन पत्र में मनरेगा की तर्ज़ पर अर्बन एम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट बनाने की बात की और आईटी सेक्टर में 22 लाख लोगों को नौकरियां देने का वादा भी किया. साफ़ है किसान, महँगाई और बेरोज़गारी के मुद्दे को अखिलेश ने अपने चुनाव प्रचार के केंद्र में रखा, लेकिन जनता को इन सब पर शायद भरोसा नहीं हुआ.
हालांकि नीरजा कहती हैं, अखिलेश ने इस चुनाव में सही नैरेटिव को पकड़ा. हिंदू मुसलमान नहीं किया, बेरोज़गारी के मुद्दे को उठाया, अपने यादव वोट बैंक को मज़बूत किया, दूसरी पिछड़ी जातियों को जोड़ने की कोशिश भी की.
लेकिन जो सफलता उन्हें बीजेपी और सपा के बीच की दूरी को पाटने के लिए चाहिए थी, वो सफलता हाथ नहीं लगी. आरएलडी के साथ गठबंधन ने तो बहुत हद तक सपा को फ़ायदा पहुँचाया है, लेकिन कितना इसके लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश की सीटों का अलग से विश्लेषण देखना होगा.
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कमज़ोर संगठन
अखिलेश की इस हार के लिए सपा के कमज़ोर संगठन को भी नीरजा चौधरी एक बड़ी वजह मानती हैं.
वो कहती हैं, “जहाँ अखिलेश जाते थे, वहाँ भीड़ दिखती थी, कार्यकर्ता भी वहीं दिखते थे. लेकिन जब वो रैली कर किसी जगह से निकल जाते थे, तो वहाँ से भीड़ और कार्यकर्ता दोनों ग़ायब हो जाते थे.”
कांग्रेस की भी यही समस्या थी. वहीं बीजेपी के पास पैसा भी है और बूथ स्तर तक के कार्यकर्ता भी थे.
इतना बड़े चुनाव में जीत के लिए ऐसे कमज़ोर संगठन से काम नहीं चल सकता. इस तरफ़ आगे अखिलेश यादव को आगे ध्यान देने की ज़रूरत होगी.